Friday, March 30, 2012

दास्ताँ

फिरती थी हवाओं में, पर लगते थे पाऊँ में
जिंदिगी बंद पिंजरों में क्यों आज रहती है
नीदों के संदूकों में कभी सोने के सपने थे
आज पीतल के टुकड़ों को महोताज रहती है

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